परिचय
वेदांग ज्योतिष वैदिक साहित्य के छः वेदांगों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, ज्योतिष) में से एक है। इसका मुख्य उद्देश्य यज्ञादि वैदिक कर्मों के लिए शुभ काल (समय) का निर्धारण करना है — अर्थात “कौन-सा कर्म किस समय किया जाए”।
वेदांग ज्योतिष के दो प्रमुख संस्करण हैं:
- ऋग्वेदीय ज्योतिष - इसमें कुल 36 श्लोक हैं।
- यजुर्वेदीय (याजुष) ज्योतिष - इनमें ऋग् पाठ के 36 श्लोकों के अलावा 7 अतिरिक्त श्लोक हैं।
याजुष ज्योतिष विशेष रूप से यजुर्वेद से संबद्ध वेदांग ज्योतिष का ग्रंथ है। इसका मुख्य प्रयोजन यज्ञ के विधि-विधान में समय का सही निर्धारण करना है क्योंकि यज्ञ तभी फलदायी होता है जब वह सटीक काल और मुहूर्त में संपन्न किया जाए।
इन दोनों के प्रवर्तक अथवा व्यवस्थापक ऋषि लगध (लगध मुनि) माने जाते हैं। संभवतः इन्होंने प्राचीन काल के कालगणना-ज्ञान को व्यवस्थित रूप में संकलित किया।
वेदांग ज्योतिष काल
लोकमान्य तिलक के अनुसार वैदिक सभ्यता की प्राचीनता ६००० वर्ष से भी अधिक है — यह एक अत्यंत संयमित अनुमान माना गया है।
अर्चन हिरण्यस्तूप जैसे ऋषि, जिन्होंने अत्यंत प्राचीन काल में जीवन व्यतीत किया,
सूर्य के गुरुत्वाकर्षणीय बंधनों (Solar gravitational fetters) को
अविनाशी आकाशीय माध्यम — आकाश या ईथर के माध्यम से कार्यरत मानते थे।
इसका उल्लेख ऋग्वेद के दशम मंडल में प्राप्त होता है।
वेदांग ज्योतिष खगोलशास्त्र का सबसे प्राचीन ग्रंथ है,
जो वैदिक पुरोहितों के लिए व्यवहारिक निर्देश पुस्तिका (handbook) के रूप में प्रयुक्त होता था।
यह ग्रंथ यह मानकर लिखा गया है कि इसके पाठकों को तत्कालीन कालगणना और यज्ञीय प्रथाओं का ज्ञान है —
जैसे (i) इसमें केवल दो चंद्र मासों के नाम माघ और श्रावण का उल्लेख मिलता है
तथा (ii) इसमें एक्लिप्टिक पथ पर स्थित २७ नक्षत्रों के प्रतीकों का वर्णन किया गया है।
इस प्रकार वेदांग ज्योतिष वैदिक युग के वैज्ञानिक एवं दार्शनिक चिंतन का प्राचीनतम प्रमाण है।
लगध मुनि का काल और चान्द्र-सौर गणना
लगध मुनि के काल में वैदिक यज्ञ का आरंभ शरद सम्पात से हुआ करता था।
चान्द्र मासों का आरंभ शुक्ल प्रतिपदा से होता रहा।
लगध काल में सम्भवतः प्रत्येक 19 वर्ष में सूर्य के उत्तरायण का दिवस तथा अमावस्या एक साथ होते रहे थे।
चान्द्र मास की अवधि 29.530588 दिन की होती है,
परंतु गणना की सहजता के लिए लगध मुनि ने 30 दिनों का एक चान्द्र मास स्वीकार किया,
जिसमें 30 तिथियाँ घटित होती थीं।
तिथि चान्द्र और सौर दिन का मुख्य अंतर है —
अमावस्या का दर्श (युति) काल या तिथि का शून्यकाल सम्पूर्ण पृथ्वी पर एक साथ ही घटित होता है,
जबकि सौर दिवस पूर्ण रूप से स्थानीय होता है।
परंतु चान्द्र कक्षा की दीर्घवृत्ताकारता के कारण तिथियों की अवधि घटती-बढ़ती रहती है।
तिथियों की प्रवृत्ति “बाण वृद्धि रस क्षय” अर्थात अधिकतम अवधि
65 घटी और न्यूनतम 54 घटी के अनुसार है।
इसी के अनुसार व्रत-पर्व आदि के निर्णय सूत्र निर्मित हैं।
सूर्य और चंद्र के भोगांशों में 12 अंश की कोणात्मक दूरी से एक तिथि का निर्धारण होता है।
पूर्णिमा के अंत तक 15 तिथियाँ अर्थात कोणात्मक दूरी 180 अंश होती है,
तथा अमावस्या तक 360 अंश पूर्ण होते हैं।
पूर्णिमा तक की 15 तिथियाँ शुक्ल पक्ष की होती हैं और
अमावस्या तक की अगली 15 तिथियाँ कृष्ण पक्ष की होती हैं।
ऋतु शेष
एक चान्द्र वर्ष में 30 × 12 = 360 दिन होते हैं,
परंतु एक सौर वर्ष में 371.05 तिथियाँ होती हैं।
यह 11.05 तिथियों का अंतर है।
वेदांग काल में यह अतिरिक्त दिन ऋतु-शेष कहलाते थे।
अतः प्रत्येक तीन वर्षों में तिथियाँ 30 से अधिक हो जाती हैं।
इस कारण लगध मुनि द्वारा एक अधिकमास की व्यवस्था की गई।
19 वर्ष के चक्र में सात ऐसे अतिरिक्त मास जोड़े जाते हैं —
- 30 × 7 = 210 तिथियाँ
- 11 × 19 = 209 तिथियाँ
वेदांग ज्योतिष का सिद्धांत
आकाशीय पिंड (ग्रह, नक्षत्र आदि) आकाशीय बलों के अधीन गति करते हैं और अपने-अपने चक्र पूर्ण करते हैं।
अतः हम उनके चक्रों या परिक्रमाओं की विभिन्न गतियों के अनुपात पूर्ण अंकों (round figures) में प्राप्त नहीं कर सकते।
इसलिए उनकी गतियों के अनुपात को व्यक्त करने के लिए एक प्रकार की
“लीप” (अधिक या क्षय) प्रणाली की आवश्यकता होती है।
ऋषि लागध को महीनों की संख्या और एक वर्ष को तिथियों में व्यक्त करना पड़ा।
इसी प्रकार एक तिथि, एक दिन और एक चंद्र नक्षत्र को
कलाओं (कला) में व्यक्त किया गया। प्रत्येक स्थान पर उन्होंने इसी प्रकार की
लीप या कट प्रणाली (क्षय) का प्रयोग किया है।
वर्ष के आंतरिक विभाजनों के लिए 372 तिथियों का मान उपयुक्त माना गया है,
क्योंकि यह 12 से विभाज्य है और इसे 6 ऋतुओं में बाँटा जा सकता है।
परंतु वास्तविक सौर वर्ष में 371 तिथियाँ ही होती हैं।
इसलिए वेदांग में दिया गया ऋतुशेष 11 तिथियाँ (371−360) है,
न कि 12 तिथियाँ (372−360)।
यदि हम ऋतुशेष 12 तिथियाँ मान लें और उसके आधार पर एक युग (5 वर्ष) की रचना करें,
तो हमें प्राप्त होता है — 12 तिथियाँ × 5 = 60 अतिरिक्त तिथियाँ,
जिसका अर्थ है कि हमें 5-वर्षीय चक्र में दो अधिमास जोड़ने होंगे।
इस प्रकार 5 वर्षों का एक युग में कुल 60 + 2 = 62 महीने होंगे।
अब तक विद्वानों द्वारा वेदांग से यही निष्कर्ष निकाला गया है, जिसमें लोकमान्य तिलक भी सम्मिलित हैं।
हम इस पुस्तक के इस भाग में देखेंगे कि ऋग-ज्योतिष (Rig Jyotisha) का आधार
प्रति-वर्षीय ऋतुशेष 11 तिथियाँ है, न कि 12 तिथियाँ।
इस पुस्तक में एस. बी. दीक्षित और लोकमान्य तिलक की टीकाओं को
उन विद्वानों का प्रतिनिधि माना गया है जिन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि
वेदांग एक 5-वर्षीय चक्र पर आधारित है।
कुछ विद्वानों ने उत्तरायण और दक्षिणायन शब्दों की व्याख्या
शरद और वसंत विषुव (autumnal & vernal equinoxes) के रूप में की है,
जबकि कुछ ने इन्हें शीत और ग्रीष्म अयनांत (winter & summer solstices) माना है।
कथन की सुविधा के लिए यहाँ इन्हें अयनांत (solstices) के रूप में ग्रहण किया गया है।
यजुर्वेदीय संस्करण (Yajus recension) निःसंदेह रूप से 5-वर्षीय चक्र पर आधारित है।
मुख्य श्लोक एवं व्याख्या
अथ याजुषज्योतिषं प्रारभ्यते।
पञ्चसंवत्सरमयं युगाध्यक्षं प्रजापतिम्।
दिनर्त्वयनमासाङ्गं प्रणम्य शिरसा शुचिः॥१॥
शुद्ध मन और शरीर वाला साधक उन प्रजापति को नमस्कार करता है, जो पाँच संवत्सरों से युक्त युगों के अधिपति हैं — जिनमें दिन, ऋतु, अयन और मास के अवयव निहित हैं।
Having bowed with a pure mind and a bent head to Prajapati,
the Lord of the ages (Yuga), composed of five years (samvatsaras),
whose body consists of days, seasons, solstices, and months.
प्रणम्य शिरसा कालमभिवाद्य सरस्वतीम्।
कालज्ञानं प्रवक्ष्यामि लगधस्य महात्मनः॥२॥
मैं नतमस्तक होकर काल को प्रणाम करता हूँ और देवी सरस्वती को अभिवादन करता हूँ। अब मैं महात्मा लगध द्वारा प्रतिपादित कालज्ञान का वर्णन करूँगा।
ज्योतिषामयनं कृत्स्नं प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः।
विप्राणां सम्मतं लोके यज्ञकालार्थसिद्धये॥३॥
क्रमपूर्वक सम्पूर्ण ज्योतिषशास्त्र का विवेचन करूँगा, जो विद्वान ब्राह्मणों द्वारा स्वीकार्य है और जिसका उद्देश्य यज्ञ आदि के लिए उचित काल का निर्धारण करना है।
व्याख्या और चर्चा
उपर्युक्त श्लोकों में परब्रह्म स्वरूप अनन्त काल को प्रणाम करने के उपरान्त, देवी सरस्वती को अभिवादन किया गया है। काल के प्रवाह की अधिष्ठात्री सरस्वती के आशीर्वाद से ही काल के रहस्यों का ज्ञान संभव होता है। महात्मा लगध ने इस विद्या को सुव्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया।
निरेकं द्वादशार्धाब्दं द्विगुणं गतसंज्ञिकम्।
षष्ट्या षष्ट्या युतं द्वाभ्यां पर्वणां राशिरूच्यते॥४॥
बारह के आधे में एक घटा कर प्राप्त संख्या अब्द की है। 60+60 जोड़ पर पर्वों की संख्या कहलाती है।
स्वराक्रमेते सोमार्को यदा साकं सवासवौ।
स्यात् तदादि युगं माघस्तपः शुक्लो (ऽयनं ह्युदक्)॥५॥
यदि सूर्य और चन्द्रमा एक साथ धनिष्ठा (वसु) नक्षत्र पर स्थित हों तब माघ मास में शुक्ल प्रतिपदा पर, उत्तरायण से युग का आरम्भ होता है।
प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्याचन्द्रमसावुदक्।
सार्पार्धे दक्षिणार्कस्तु माघश्रावणयोः सदा॥६॥
सूर्य और चन्द्रमा जब धनिष्ठा के आरम्भ पर पहुँचते हैं तब उत्तरायण आरम्भ होता है; आश्लेषा के मध्य बिन्दु पर दक्षिणायन आरम्भ होता है — क्रमशः माघ और श्रावण मास में।
धर्मवृद्धिरपां प्रस्थः क्षपाह्रास उदग्गतौ।
दक्षिणे तौ विपर्यासः षण्मुहूर्त्ययनेन तु॥७॥
उत्तरायण में धर्म वृद्धि और दिनमान बढ़ते हैं; दक्षिणायण में विपरीत प्रभाव होता है। उत्तरायण और दक्षिणायण में छः मुहूर्त्तों का अंतर होता है।
वेदाङ्ग ज्योतिष का काल लगभग 5000 वर्ष पूर्व का माना जाता है। उस समय पृथ्वी का झुकाव लगभग 23.58°–24° रहा होगा — जिसके परिणामस्वरूप दिनमान व रात्रि मान में अधिकतक अंतर लगभग 6 मुहूर्त्त का रहा होगा।
वर्तमान काल में जब पृथ्वी का झुकाव 23.436अंश है तब दिनमान व रात्रि मान का ्अधिकतम अंतर 4 मुहूर्त्त है।
(द्विगुणं) सप्तमं चाहुरयनाद्यं त्रयोद(शम्)।
चतुर्थं दशमं (च) द्विर्युग्माद्यं बहुलेऽष्यृतौ॥८॥
द्विगुणं सप्तमं च आहुर् अयन आद्यं त्रयोदशम् चतुर्थं दशमं च द्वि युग्मं आद्यं बहुलेः अष्यृतौ
वसुस्त्वष्टा भवोऽजश्च मित्रः सर्पाश्विनौ जलम्।
धाता कश्चायनाद्याश्चार्थपञ्च(म)भस्त्वृतुः॥९॥
धर्म वृद्धिः अपां प्रस्थः क्षपा ह्रास उदक् गतौदक्षिणे तौ विपर्यासः षण् मुहूर्त्यय् अनेन तु।
भांशाः स्युरष्टकाः कार्याः पक्षद्वादशकोद्गताः।
एकादशगुण(श्चो)नः शुक्लेऽर्धं चैन्दवा यदि॥१०॥
भ अंशाः स्युः अष्टकाः कार्याः पक्ष द्वादशक उत् गताः। एकादश गुणः च नः शुक्ले अर्धं च ऐन्दवा यदि।
नक्षत्रचक्र के अंशों के आठवें भाग
कार्या भांशाष्ट(क) स्थाने कला एकान्नविंशतिः।
ऊनस्थाने (त्रि)सप्त(तिमु)द्वपेदूनसम्मिताः॥११॥
कार्या भ अंश अष्टक स्थाने कला एकोन्नविंशति, ऊन स्थाने त्रि सप्ततिम् उ द्वपेत् ऊन सम्मिताः।
(त्र्यंशो) भशेषो दिवसांशभागश्चतुर्दश(श्चाप्यानीय)भिन्नम्।
भार्धेऽधिके (चापि गते परोंऽशो) द्वावुत्तमैकं प्नवकैरवेद्यम्॥१२॥
धर्म वृद्धिः अपां प्रस्थः क्षपा ह्रास उदक् गतौदक्षिणे तौ विपर्यासः षण् मुहूर्त्यय् अनेन तु।
पक्षात् पञ्चदशाच्चोर्ध्वं तद्भुक्तमिति निर्दिशेत्।
नवभिस्तूद्गतोंऽशः स्यादूनांशद्व्यधिकेन तु॥१३॥
धर्म वृद्धिः अपां प्रस्थः क्षपा ह्रास उदक् गतौदक्षिणे तौ विपर्यासः षण् मुहूर्त्यय् अनेन तु।
जौ द्रा घः खे श्वे ऽही रो षा चिन् म ष ण्यः (स मा धा णः)।
रे मृ घ्राः स्वा ऽपो ऽजः कृ ष्यो ह ज्ये ष्ठा इत्तृक्षा लिङ्गैः॥१४॥
धर्म वृद्धिः अपां प्रस्थः क्षपा ह्रास उदक् गतौदक्षिणे तौ विपर्यासः षण् मुहूर्त्यय् अनेन तु।
नक्षत्र सूची
| क्रम |
चिह्न |
पूर्ण रूप |
नक्षत्र |
क्रम |
चिह्न |
पूर्ण रूप |
नक्षत्र |
| 1 | ज्यौ | अश्वयुजौ | अश्विनी | 15 | धाः | अनुराधा | अनुराधा |
| 2 | द्रा | आर्द्रा | आर्द्रा | 16 | ण | श्रवण | श्रवण |
| 3 | घः | भगः | पूर्व फाल्गुनी | 17 | रे | रेवती | रेवती |
| 4 | खे | विशाखा | विशाखा | 18 | मृ | मृगशिरा | मृगशिरा |
| 5 | श्वेः | विश्वेदेवा | उत्तराषाढ़ा | 19 | घ्राः | मघा | मघा |
| 6 | अही | अहिर्बुधन्य | उत्तर भाद्रपद | 20 | स्वा | स्वाति | स्वाति |
| 7 | रो | रोहिणी | रोहिणी | 21 | अप | अपः | पूर्वाषाढ़ा |
| 8 | षा | आश्लेषा | आश्लेषा | 22 | अजः | अजापत | पूर्वभाद्रपद |
| 9 | चिन् | चित्रा | चित्रा | 23 | कृ | कृत्तिका | कृत्तिका |
| 10 | म | मूल | मूल | 24 | ष्या | पुष्य | पुष्य |
| 11 | ष | शतभिषा | शतभिषा | 25 | ह | हस्त | हस्त |
| 12 | ण्यः | भरण्य | भरणी | 26 | जे | ज्येष्ठा | ज्येष्ठा |
| 13 | सू | पुनर्वसु | पुनर्वसु | 27 | ष्ठा | श्रविष्ठा | धनिष्ठा |
| 14 | मा | अर्यमा | उत्तरफाल्गुनी | | | | |
नोट - जावादि (ज्यौ+आदि) नक्षत्र क्रम का आरंभ अश्विनी नक्षत्र से हुआ है। इसके उपरांत छठे नक्षत्र को क्रमवार रखा गया है।
जावाद्यंशैः समं विद्यात् पूर्वार्धे पर्वसूत्तरे।
भादानं स्या (चतुर्दश्यां) काष्ठानां देविना कलाः (?)॥१५॥
ज्यौ आदि अंशैः समं विद्यात् पूर्वार्धे पूर्वसः उत्तरे।
भ आदानं स्या चतुर्दश्यां काष्ठानाम् देविना कलाः।
कला दश (स) विंशा स्यात् (द्वे) मुहूर्तस्य नाडिके।
(द्यु) त्रिंशत् तत्कालानां तु षट्छती त्रयधिकं भवेत्॥१६॥
एक कला के दस + बीसवें भाग की एक मुहूर्त्त और दो मुहूर्त्त की एक नाडिका होती है।
एक दिन में तीस मुहूर्त्त होते हैं जिसका मान 603 कला के बराबर है।
| 10.05 कला | = 1 नाडिका |
| 2 नाडिका | = 1 मुहूर्त्त |
| 30 मुहूर्त्त | = 1 दिन |
| 1 दिन | = 10.05 × 2 × 30 = 603 कला |
नाडिके द्वे मुहूर्तस्तु पञ्चाशत्पलमाढकम्।
आढकात् कुम्भिका द्रोणः कुडवैर्वर्धते त्रिभिः॥१७॥
दो नाडिका का एक मुहूर्त्त होता है। पचास पल की एक आढक होती है।
आढक से कुम्भ/द्रोण की तीन कुडव के बराबर वृद्धि होती है।
(From the adhaka, kumbhaka or drona increases by three kudavas)
| 2 नाडिका | = एक मुहूर्त्त |
| 50 पल | = एक आढक |
| 1 आढक + 3 कुडव | = एक कुम्भक/द्रोण |
ससप्तैकं भयुक् सोमः सूर्यो द्यूनि त्रयोदश।
नवमानि च पञ्चाह्वः काष्ठाः पञ्चाक्षराः स्मृताः॥१८॥
श्रविष्ठायां (ग)णाभ्यस्तान् प्राग्विलग्नान् विनिर्दिशेत्।
(स्त)र्यान् मासान् षळभ्यस्तान् विद्याच्चान्द्रमसान् ऋतुन्॥१९॥
धर्म वृद्धिः अपां प्रस्थः क्षपा ह्रास उदक् गतौदक्षिणे तौ विपर्यासः षण् मुहूर्त्यय् अनेन तु।
अतीतपर्वभागे(भ्यः) शोधयेद् द्विगुणां तिथिम्।
तेषु मण्डलभागेषु तिथिनिष्ठांगतो रविः॥२०॥
याः पर्वभादानकलास्तासु सप्तगुणांतिथिम्।
प्रक्षिपेत् (तत्)समूहस्तु विद्यादादानिकीः कलाः॥२१॥
यदुत्तरस्यायनतो गतं स्याच्छेषं तु यद् दक्षिणतोऽयनस्य।
तदे(क)षष्ट्या द्विगुणँ विभक्तं सद्वादशं स्याद् दिवसप्रमाणम्॥२२॥
(य)दर्धं दिनभागानां सदा पर्वणि पर्वणि।
ऋतुशेषं तु तद् विद्यत् संख्याय सहपर्वणाम्॥२३॥
इत्युपायसमुद्देशो भूयोऽ(प्यह्नः) प्रकल्पयेत्।
ज्ञेयरा(शि)गताभ्य(स्तं) विभजेत् ज्ञानराशि(ना)॥२४॥
अग्निः प्रजापतिः सोमोरूद्रोऽदितिर्बहस्पतिः।
सर्पाश्च पिरश्चैव भगश्चैवार्यमापि च॥२५॥
सविता त्वष्टाथ वायुश्चेन्द्राग्नी मित्र एव च।
इन्द्रो निर्ऋतिरापो वै विश्वेदेवास्तथैव च॥२६॥
विष्णुर्वसवो वरुणोऽज एकपात् तथैव च।
अहिर्बुधन्यस्तथा पूषा अश्विनौ यम एव च॥२७॥
अग्नि, प्रजापति, सोम, रुद्र, अदिति, बृहस्पति, सर्प, पितृ, भग, अर्यमा।
सविता, त्वष्टा, वायु, इन्द्राग्नि, मित्र, इन्द्र, निर्ऋति, जल, विश्वेदेवा।
विष्णु, वसु, वरुण, एकपाद, अहिर्बुधन्य, पूषा, अश्विनिकुमार और यम।
यह सब नक्षत्रों के देवता हैं, इनके नक्षत्र दिवस पर इनके निमित्त यज्ञ कर्म करना चाहिए।
नक्षत्र और उनके स्वामी देवताओं का युग्म को स्पष्ट रूप से पुनः प्रस्तुत किया जाता है।
| कृत्तिका | अग्नि | रोहिणी | प्रजापती | मृगशिरा | सोम | आर्द्रा | रुद्र |
| पुनर्वसु | अदिति | पुष्य | बृहस्पति | आश्लेषा | सर्प | मघा | पितृ |
| पूर्व फाल्गुन | भग | उत्तर फाल्गुन | अर्यमा | हस्त | सविता | चित्रा | त्वष्टा |
| स्वाति | वायु | विशाखा | इन्द्राग्नि | अनुराधा | मित्र | ज्येष्ठा | इन्द्र |
| मूल | निर्ऋति | पूर्वाषाढ़ा | जल | उत्तराषाढ़ा | विश्वेदेवा | श्रवण | विष्णु |
| धनिष्ठा | वसु | शतभिषा | वरुण | पूर्वभाद्रपद | एकपाद | उत्तर भाद्रपद | अहिर्बुधन्य |
| रेवती | पूषा | अश्विनी | अश्विनी | भरणी | यम | | |
इत्ये(वं) मासवर्षाणां मुहूर्तोदयपर्वणाम्।
दिनर्त्वयनमासाङ्गं व्याख्या(नं) लगधोऽब्रवीत्॥२९॥
इस प्रकार वर्षों के महीने, मुहूर्त्त, सूर्योदय, पर्वदिवसों, दिन, ऋतु, मासाङ्ग की व्याख्या लगधाचार्य जी द्वारा कही गई।
O Prajapati, Lord of the cosmic cycles made up of five years (samvatsars),
Your body is formed of days, months, seasons, and half-years.
I bow before You with a humble heart and a pure mind.
सोमसूर्य(स्तृ) चरि(तं) लो(कं) लोको च सम्मतिम्।
सोमसूर्य(स्तृ)चरि(तं) विद्वान् वेदविदश्नुते॥३०॥
चन्द्रमा और सूर्य संसार के लक्षण (से बनने वाली तिथि, पक्ष, पर्वदिवस, मासादि)
संसार सर्वसम्मत काल का निर्णय करते हैं।
वेदों को जानने वाला विद्वान चंद्रमा और सूर्य के गुणों को प्राप्त करता है।
विषुवत् तद् गुणं द्वाभ्यां रूपहीनं तु षड्गुणम्।
यल्लब्धं तानि पर्वाणि तदर्घं सा तिथिर्भवेत्॥३१॥
विषुव की गत संख्या को 2 से गुणा कर 1 घटाएँ।
प्राप्त संख्या को 6 से गुणा करें।
इस प्रकार प्राप्त मान गत पर्व संख्याएँ होती हैं।
इस संख्या का आधा मान उस तिथि का होता है जिसके अन्त पर अगला विषुव घटित होता है।
माघशुक्ल प्रवृत्तस्य पौषकृष्णसमापिनः।
युगस्य पञ्चवर्षस्य कालज्ञानं प्रचक्षते॥३२॥
युग के पांच वर्षों का काल ज्ञान माघ शुक्ल से आरंभ हो कर पौष कृष्ण पक्ष के साथ समाप्त हो जाता है।
नाकाल में संवत्सर का आरंभ माघ शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से आरंभ होता रहा है।
अर्थात एक दिन पूर्व अमावस्या तथा विषुव संक्रान्ति भी धनिष्ठा नक्षत्र पर होती रही।
तृतीयां नवमीं चैव पौर्णमासी(मथासिते)।
षष्ठीं च विषुवान् प्रोक्तो द्वाद(शीं) च सम् भवेत्॥३३॥
शुक्ल पक्ष की नवमी, तृतीया, पूर्णिमा तथा कृष्ण पक्ष की षष्ठी, सप्तमी को विषुव दिवस होता है।
चतुर्दशीमुपवसथस्तथा भवेद् यथोदितो दिनमुपैति चन्द्रमाः।
माघशुक्लाह्निको युङख्ते श्रविष्ठायां च वार्षिकीम्॥३४॥
यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
तद्ववद्वेदाङ्गशात्राणां ज्योतिषं मूर्धनि स्थितम्॥३५॥
जिस प्रकार मयूर के सिर पर शिखा और नाग मणि से सुशोभित होते हैं,
उसी प्रकार वेदाङ्ग शास्त्रों में भी ज्योतिष सर्वोपरि है, अर्थात वेदों की शोभा बढ़ाता है।
वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः।
तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञान्॥३६॥